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जरा ये सोच कि वो शख्स किस क़दर था बुलंद ,
जो ज़िन्दगी से कभी हारा नहीं ! बैचैन रहता था विस्तार पाने को , उत्सुक रहता था भोर की स्वर्णिम पारदर्शी किरणों की तरह फ़ैल जाने को ! उड़ता रहता था वो पंछी की तरह स्वच्छंद आकाश में , रोक नहीं पाता था कोई उसे आत्मसाक्षात्कार से , चलते चलते निकल जाता था , वो बहुत दूर कहीं , जहां कोई किनारा होता नहीं ........ तय करता था वह अपना अनजाना सफ़र , केवल खामोश और तनहा , बाँध नहीं पाता था कोई , सामाजिक बंधनों का बाँध उस पर .......... नहीं परिसीमन करता था वो उन रिश्तों को , जो वो निभा सकता था नहीं ..... जीता था वो तनहा, करता था वो अपने दिल की ! तभी तो बह नहीं पाया ..... वह वक़्त की बाढ़ में , क्यूंकि वह दूर नहीं था स्वयं से ! |
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