चले जाओ ,
मै अब नही रोकूंगी तुम्हे ,
जाना ही चाहते हो न ,
जाओ ,
किसने तुम्हे रोका है..
पर जाने से पहले ,एक बात समझ लो--

जिन्दगी मे फिर कभी
मुडकर ना देखना,
जिसे तुम छोड़ कर चले गए ,वो जिन्दा है की मर गयी
इसके बारे में भी बिलकुल भी मत सोचना .
उसका सुकून उससे कोसो दूर हो ,
तुम अपनी जिन्दगी सुकून से जीना .
उसे नींद आये ना आये ,
तुम सुन्दर सपनो की नींद सोना !
तुम्हारे साथ जमाना चलेगा गुनगुनाता ,
लेकिन उसकी तनहाइयों को तुम ना सोचना !
तुम दोस्ती करना वादियों की खूबसूरती से ,
उसे अपने टूटे हुए सपनो के साथ छोड़ देना !
तुम सबके के प्यारे बन जाओ ,
वो सिर्फ तुम्हारे प्यार भरी की एक नजर के लिए तडपेगी ..
जाना ही चाहते हो न ,
चले जाओ ,किसने तुम्हे रोका है... !!
मीतू ....Copyright ©

12:14 AM

मन है की बस पांखी की तरह ,
उड़ता ही जा रहा है अतीत की गलियों में ,
कभी सुनहरे बादलो के बीच तो कभी तितलियों के देश ....
मन के सिन्धु है की छलकने को तैयार ,
नैनों के तटबंध तोड़ विद्रोह करने को आतुर ,

क्या कहू , कैसे .. किससे ?
अब तो कुछ भी पता नही  ,
अपना भी नही ....
थक चुके है पर , ढूंढ़ रहे है छाँव भरे मुंडेर .....
नही कोई आसरा ,
है हर तरफ कड़ी धूप ,
माँ के आँचल की छाँव ,
पिता के बाहों का सहारा ,
ओंझल हुआ सब महत्वकांक्षाओ के आकाश में !!
नही-नही ,
अब कुछ भी तो नही !
 मै भी नही ,
कुछ नही
अब कोई नही ....!
बस यूँ ही ....

अनजाने में हुई एक छोटी सी बेवकूफी पाप बन जाती है ,
जिसका धुल पाना सातो ज़न्म में भी मुश्किल हो जाता है !
कभी-कभी अनजाने में लगी एक छोटी सी चोट नासूर बन जाती है ,
जिसका निस्तारण सिर्फ चिता के साथ ही होता है !!



5:21 AM

काला जादू काली रात ,उल्लू से उल्लू की बात ...!
जादू से तूझे बना के कबूतर , कर दू पराधीन तुझे पिंजरे के अन्दर !
कपटी तेरी माया विकराल , मारूंगी तुझको तिकड़म की घात....!
पड़ा नही अभी तू मेरे पाले,कर दूंगी तुझको निष्प्राण ..!!
.११ रात्रि २८-०८-२०१०

   

अब क्या बताएं , हमने क्या-क्या देखा ,
ज़माने के डर से दोस्त को भाई बनते देखा !
कुत्तो के डर से शेर को राह बदलते देखा ,
शाश्वत सत्य को अदना झूठ से हारते देखा !
...भरी दुपहरियां में सूरज को ढ़लते देखा !!!
अब क्या बताएं हमने क्या-क्या देखा ...
(०३०९२०१० प्रातः १०:००)



नेहिया लगाला पिया,माना मोरी बतिया राम
कसकेला करेजवा में तोहरी सुरतिया राम !!

माघ महिनवा में सरसों फुलाला ,
हमार झुराई गईले प्रीत के बिरवा राम !

तोहके पुकारेला पागल मनवा ,
सुधियों न लेहला पिया ,भेजला नहीं पतिया राम !

तडपत बीत गईल सारी जिन्द्गनियाँ !
बिरहिनी गिने तारा,सारी सारी रतियाँ राम !!

मैंने औरत को पिटते देखा है ,
और बादलो को भी घिरते देखा है ,
लेकिन आकाश में नही, उस औरत की आँखों में !


मैंने पानी फिरते देखा है, उसके सपनो में !
जब वे चूर-चूर होकर कसकते है उसकी आँखों से ,
तब उसका जिस्म ही नही टूटता ,
टूटता है उसका विश्वास भी रिश्तो से !
टूटता है उसका आत्मबल भी,उसके ही अपनों से !


मैंने हारते देखा है, मनोबल को शारीरिक बल से !
जब औरत पिटती है,अपने पति के हाथों से !
मैंने उन्ही हाथो से ,
उस औरत को असुरक्षित देखा है ,
जिनका दावा है उसके संरक्षकत्व का !


और चुपके से दुआ मांगते भी देखा है ,
उसी औरत को- उसके लिए ,
जिससे - बाराहा पिटती है वह,
सुबह शाम और रातो को ....!!


(यह कविता आँखों-देखी पर आधारित है !
कालोनी में अक्सर देखती थी ...
एक दिन पूछा भी उनसे - "भाभी, क्यूँ सहती हो" ?
लेकिन उनके जवाब में फिर भी पति के प्रति आदर और सम्मान ही पाया....


पत्नी अध्यापिका और पति इंजिनियर-और उनके घर में यह हाल !
...क्या यही है स्थिति हमारी ?)

.

 
अर्थ है क्या- प्रेम का , आकांक्षा का ...तुम बताओ !
क्या इसे हम प्राप्त करते है निरर्थक आस्था में ,
या की सरिता के निराले बांकपन में ?
--तुम बताओ !

शांत लहरों की अज़ब उत्तेजना का सबब क्या है ?
सिन्धु जल के ज्वार में क्या राज़ है ?
--मुझको बताओ !

रूठ जायेंगे , न मानेंगे युगों तक !
तुम कहाँ हो , कौन हो ?
कुछ तो बताओ ....!!!!!!!!

.
विभावरी की द्वितीय बेला में ,
मेरे मित्र से मेरा साक्षात्कार हुआ !
कहने लगा सो जाओ तुम ,
मत उलझो इन जंजालों में .....

क्या पाओगी तुम ,
क्या तुमने खोया है ?
कैसे सुनेगा कोई बात तुम्हारी ,
जब सारा जग सोया है !!

जानता हूँ तुम हो अकेली ,
इस जीवन के कुरुक्षेत्र में !
पर कैसे दू साथ तुम्हारा ,
लगा दे न कोई कलंक हममे !!

सीख सको तो सीख लो इतिहास ,
जब अभिमन्यु हारा था !
चुन-चुन कर अपनों ने ही ,
उसे रण-भूमि में मारा था !!

विचार संकीर्ण , कुंठित मानसिकता ,
आज फिर अभिमन्यु अकेला है !
मत सोचो , अब सो जाओ सखी..
यह रात्रि की चतुर्थ बेला है...... 



(यह कविता मेरे मित्र से मेरी बातचीत का सारांश है,
इसमें कुछ लाइन बिना बदलाव के है ..)

                                              

4:20 AM


‎ आज फिर झंझा घिरी और मन के सिन्धु छलके !

ये कौन आया याद कि ये नयनो के तटबंध छलके !! 

दूर तक घन तिमिर के श्याम अंचल में ,

एक आभा बिम्ब की सी आती हलचल में ,

और मेरी रागिनी व्यग्र होती ,

उसे पाने उर्मि झिलमिल में ....

बिम्ब वो क्यू पास आते , मेहमां थे चंद पल के !

ये कौन आया याद कि ये नयनो के तटबंध छलके !!


----मीतू ०६०९२०१० सायं ८:०३ Copyright ©

  • संवेदना

    क्यों लिखती हूँ नहीं जानती, पर लिखती हूँ... क्योकि महसूस करना चाहती हूँ प्रेम-पीड़ा-परिचय-पहचान! तन्हाई में जब आत्म मंथन करती हूँ तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, अनुभव मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर कविता का रूप ले लेती है!! ---किरण श्रीवास्तव "मीतू" !!

    अपने दायरे !!

    अपने दायरे !!
    कुछ वीरानियो के सिलसिले आये इस कदर की जो मेरा अज़ीज़ था ..... आज वही मुझसे दूर है ..... तल्ख़ हुए रिश्तो में ओढ़ ली है अब मैंने तन्हाइयां !! ......... किरण "मीतू" !!

    स्पंदन !!

    स्पंदन !!
    निष्ठुर हूँ , निश्चल हूँ मैं पर मृत नही हूँ ... प्राण हैं मुझमे ... अभी उठना है दौड़ना हैं मुझे ... अपाहिज आत्मा के सहारे ... जीना है एक जीवन ... जिसमे मरण हैं एक बार ... सिर्फ एक बार !! ..... किरण " मीतू" !!

    सतरंगी दुनिया !!

    सतरंगी दुनिया !!
    आस-पास , हास-परिहास , मैं रही फिर भी उदास ...आत्मा पर पड़ा उधार , उतारने का हुआ प्रयास ... खुश करने के और रहने के असफल रहे है सब प्रयास !! ..... किरण "मीतू" !!

    उलझन !!

    उलझन !!
    अकेले है इस जहां में , कहाँ जाए किधर जाए ! नही कोई जगह ऐसी की दिल के ज़ख्म भर जाए !! ... किरण "मीतू" !

    तलाश स्वयं की !!

    तलाश स्वयं की !!
    कुछ क्षण अंतर्मन में तूफ़ान उत्पन्न कर देते है और शब्दों में आकार पाने पर ही शांत होते है ! ..... मीतू !!

    ज़ज़्बात दिल के !

    ज़ज़्बात दिल के !
    मंजिल की तलाश में भागती इस महानगर के अनजानी राहो में मुझे मेरी कविता थाम लेती है , मुझे कुछ पल ठहर जी लेने का एहसास देती है ! मेरी कविता का जन्म ह्रदय की घनीभूत पीड़ा के क्षणों में ही होता है !! ..... किरण "मीतू" !!

    मेरे एहसास !!

    मेरे एहसास !!
    मेरे भीतर हो रहा है अंकुरण , उबल रहा है कुछ जो , निकल आना चाहता है बाहर , फोड़कर धरती का सीना , तैयार रहो तुम सब ..... मेरा विस्फोट कभी भी , तहस - नहस कर सकता है , तुम्हारे दमन के - नापाक इरादों को ---- किरण "मीतू" !!

    आर्तनाद !

    आर्तनाद !
    कभी-कभी जी करता है की भाग जाऊं मैं , इस खुबसूरत ,रंगीन , चंचल शहर से !! दो उदास आँखे .....निहारती रहती है बंद कमरे की उदास छत को ! . ..लेकिन भागुंगी भी कहाँ ? कौन है भला , जो इस सुन्दर सी पृथ्वी पर करता होगा मेरी प्रतीक्षा ? ..... किरण "मीतू" !!

    मेरा बचपन - दुनिया परियो की !

    मेरा बचपन - दुनिया परियो की !
    प्रकृति की गोद में बिताये बचपन की मधुर स्मृतियाँ बार-बार मन को उसी ओर ले जाती है ! मानव जीवन में होने वाली हर बात मुझे प्रकृति से जुडी नज़र आती है तथा मैं मानव जीवन तथा प्रकृति में समीकरण बनाने का प्रयास करती हूँ !....किरण "मीतू

    कविता-मेरी संवेदना !!

    कविता-मेरी संवेदना !!
    वेदना की माटी से , पीड़ा के पानी से , संवेदनाओ की हवा से , आँसूवो के झरनों से ! कोमल मन को जब लगती है चोट , निकलता है कोई गीत , और बनती है कोई कविता !! ..... मीतू !!
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