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जब मेरे नंगे पाँव, आग का दरिया पार करते रहे - मेरे सामने एक नया अध्याय खुला, मैं, न तो कांच की गुडिया हूँ , न मोम की मूरत ..... मैं अमरबेल हूँ ! फुनगी-फुनगी लहरा सकती हूँ, ज़ख्म-ज़ख्म एहसासों के बाबजूद, मुस्करा सकती हूँ, मौत को भी जिन्दगी का, सबक पढ़ा सकती हूँ ! |
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comments
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December 10, 2011 at 9:08 PM �
जिसमे भी फुनगी-फुनगी लहरा सकने की ललक होगी ,वही पढ़ा सकता है मौत को भी जिंदगी का पाठ.....और वह निस्संदेह कांच की गुडिया या मोम की मूरत नहीं होगी ....उसे होना ही होगा अमरबेल ..!! तमाम जख्मी एहसासों के बावजूद ...!!!!!!!!!
बहुत अच्छी कविता ...वास्तव में ...
December 11, 2011 at 12:05 PM �
संघर्ष-गाथा की प्रेरक कविता बहुत अच्छी है।
December 12, 2011 at 2:45 PM �
Very nice Meetuji.....