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माँ ने सिखाया था बचपन में बेटी जोर से मत हँसना,धीरे ,धीरे बोलना पूछती थी की - क्यूँ माँ ? कहती थी, हँसना जब तू अपने घर जाएगी , बोलना उससे जिसके संग ब्याहेगी.... मै समझ गयी ,कुछ कहा नहीं .... आँखों में सपने संजो कर चल दी अपने ससुराल सोंचा की ,अब खिलखिलायुंगी - मगर यह क्या ? यहाँ भी शब्द गूंजते हैं ! और सब कहते हैं ! तू तो परायी है ,अपने घर से क्या लायी है ! माँ ,- बतावो न माँ मेरा घर कहाँ है ? |
November 16, 2010 at 4:54 PM �
good
November 18, 2010 at 9:13 AM �
मीतू जी.. आपकी कविता का लिंक मैं.. चर्चामंच पर रखूंगी.. वह पर और मेरे ब्लॉग पर भी अपनी राय देना..
November 19, 2010 at 9:55 AM �
बहुत भाव पूर्ण रचना ....सार्थक प्रश्न उठाती रचना ..
November 19, 2010 at 11:00 AM �
यही तो विडंबना है आज तक उसे अपना घर ही नही मिला……………बेह्द मार्मिक प्रस्तुति।
February 8, 2011 at 9:24 PM �
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी आँचल में है दूध और आँखों में पानी
मीतु जी अत्यंत मार्मिक कविता है यह !ये लाइनें व्यक्ति के अंतःकरण को झकझोर देने वाली हैं!
यह सवाल आज हर नव बधू के मन में है किन्तु वही नव बधू जब सासु माँ बन जाती है तब वह खुद ही क्यों भूल जाती है कुछ समय पहले पूंछे गए अपने ही सवाल को, वह आने वाली नव बधू का स्वागत क्यों नहीं करती अपने हृदयँ के गाम्भीर्य से, क्यों इस प्रश्न को सदा के लिए समाप्त नहीं करती कि क्या लाई हो ? क्यों आखिर क्यों ???????
June 24, 2019 at 2:41 PM �
दिल छू लिया
June 24, 2019 at 2:42 PM �
दिल छू लिया
June 24, 2019 at 2:43 PM �
दिल छू लिया