12:14 AM

मन है की बस पांखी की तरह ,
उड़ता ही जा रहा है अतीत की गलियों में ,
कभी सुनहरे बादलो के बीच तो कभी तितलियों के देश ....
मन के सिन्धु है की छलकने को तैयार ,
नैनों के तटबंध तोड़ विद्रोह करने को आतुर ,

क्या कहू , कैसे .. किससे ?
अब तो कुछ भी पता नही  ,
अपना भी नही ....
थक चुके है पर , ढूंढ़ रहे है छाँव भरे मुंडेर .....
नही कोई आसरा ,
है हर तरफ कड़ी धूप ,
माँ के आँचल की छाँव ,
पिता के बाहों का सहारा ,
ओंझल हुआ सब महत्वकांक्षाओ के आकाश में !!
नही-नही ,
अब कुछ भी तो नही !
 मै भी नही ,
कुछ नही
अब कोई नही ....!
बस यूँ ही ....

7 Responses to "उलझन !!"

  1. अरुणेश मिश्र Says:

    नैनोँ के तटबन्ध तोड़ने को आतुर ।
    प्रशंसनीय ।

  2. PUKHRAJ JANGID पुखराज जाँगिड Says:

    मन की डोर,
    रिश्तों का गर्माहट और
    सपनों की आहट को जोड़ती अच्छी प्रस्तुति.

  3. राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) Says:

    mitu......papa shabd theek nahin hai yahaan....ise pita karke dekho....tumhen bhi acchha lagegaa ...sach....karke dekho...dekha acchha lagaa naa.....!!!!

  4. Jainendra Singh Says:

    Ati Sundar............

  5. sp Says:

    Poetry has been defined as a spontaneous overflow of one's emotions. How true that's after reading your beautiful creations! Please keep it up.

  6. JAGDEEP SINGH Says:

    Meetu Ji U r contemplative person I like ur Poems .... JAGDEEP SINGH

  7. a k mishra Says:

    बड़ा ही मार्मिक रचना...किरण जी...क्या कहूँ..
    कैसी है यह अभिव्यक्ति,
    कैसा है यह दर्द
    दिल को पिघला गया,
    आँखों को आँसुओं से भिगा गया
    मन तो मन है ,मन का क्या ,
    जीना तो पड़ता है हर हाल में
    छूट जाते हैं बहुत सारे अपने ,
    बढ़ जाते हैं हम अपनी राहों पर
    भीगकर भी आँसुओं के गम में
    कुछ पाने की रहती है ललक
    उदासी और निराशा से
    निकलना ही अच्छा है
    पा लेतें हैं उस मंजिल को
    प्रण अगर पक्का है ..:)

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  • संवेदना

    क्यों लिखती हूँ नहीं जानती, पर लिखती हूँ... क्योकि महसूस करना चाहती हूँ प्रेम-पीड़ा-परिचय-पहचान! तन्हाई में जब आत्म मंथन करती हूँ तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, अनुभव मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर कविता का रूप ले लेती है!! ---किरण श्रीवास्तव "मीतू" !!

    अपने दायरे !!

    अपने दायरे !!
    कुछ वीरानियो के सिलसिले आये इस कदर की जो मेरा अज़ीज़ था ..... आज वही मुझसे दूर है ..... तल्ख़ हुए रिश्तो में ओढ़ ली है अब मैंने तन्हाइयां !! ......... किरण "मीतू" !!

    स्पंदन !!

    स्पंदन !!
    निष्ठुर हूँ , निश्चल हूँ मैं पर मृत नही हूँ ... प्राण हैं मुझमे ... अभी उठना है दौड़ना हैं मुझे ... अपाहिज आत्मा के सहारे ... जीना है एक जीवन ... जिसमे मरण हैं एक बार ... सिर्फ एक बार !! ..... किरण " मीतू" !!

    सतरंगी दुनिया !!

    सतरंगी दुनिया !!
    आस-पास , हास-परिहास , मैं रही फिर भी उदास ...आत्मा पर पड़ा उधार , उतारने का हुआ प्रयास ... खुश करने के और रहने के असफल रहे है सब प्रयास !! ..... किरण "मीतू" !!

    उलझन !!

    उलझन !!
    अकेले है इस जहां में , कहाँ जाए किधर जाए ! नही कोई जगह ऐसी की दिल के ज़ख्म भर जाए !! ... किरण "मीतू" !

    तलाश स्वयं की !!

    तलाश स्वयं की !!
    कुछ क्षण अंतर्मन में तूफ़ान उत्पन्न कर देते है और शब्दों में आकार पाने पर ही शांत होते है ! ..... मीतू !!

    ज़ज़्बात दिल के !

    ज़ज़्बात दिल के !
    मंजिल की तलाश में भागती इस महानगर के अनजानी राहो में मुझे मेरी कविता थाम लेती है , मुझे कुछ पल ठहर जी लेने का एहसास देती है ! मेरी कविता का जन्म ह्रदय की घनीभूत पीड़ा के क्षणों में ही होता है !! ..... किरण "मीतू" !!

    मेरे एहसास !!

    मेरे एहसास !!
    मेरे भीतर हो रहा है अंकुरण , उबल रहा है कुछ जो , निकल आना चाहता है बाहर , फोड़कर धरती का सीना , तैयार रहो तुम सब ..... मेरा विस्फोट कभी भी , तहस - नहस कर सकता है , तुम्हारे दमन के - नापाक इरादों को ---- किरण "मीतू" !!

    आर्तनाद !

    आर्तनाद !
    कभी-कभी जी करता है की भाग जाऊं मैं , इस खुबसूरत ,रंगीन , चंचल शहर से !! दो उदास आँखे .....निहारती रहती है बंद कमरे की उदास छत को ! . ..लेकिन भागुंगी भी कहाँ ? कौन है भला , जो इस सुन्दर सी पृथ्वी पर करता होगा मेरी प्रतीक्षा ? ..... किरण "मीतू" !!

    मेरा बचपन - दुनिया परियो की !

    मेरा बचपन - दुनिया परियो की !
    प्रकृति की गोद में बिताये बचपन की मधुर स्मृतियाँ बार-बार मन को उसी ओर ले जाती है ! मानव जीवन में होने वाली हर बात मुझे प्रकृति से जुडी नज़र आती है तथा मैं मानव जीवन तथा प्रकृति में समीकरण बनाने का प्रयास करती हूँ !....किरण "मीतू

    कविता-मेरी संवेदना !!

    कविता-मेरी संवेदना !!
    वेदना की माटी से , पीड़ा के पानी से , संवेदनाओ की हवा से , आँसूवो के झरनों से ! कोमल मन को जब लगती है चोट , निकलता है कोई गीत , और बनती है कोई कविता !! ..... मीतू !!
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