12:14 AM
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मन है की बस पांखी की तरह , उड़ता ही जा रहा है अतीत की गलियों में , कभी सुनहरे बादलो के बीच तो कभी तितलियों के देश .... मन के सिन्धु है की छलकने को तैयार , नैनों के तटबंध तोड़ विद्रोह करने को आतुर , क्या कहू , कैसे .. किससे ? अब तो कुछ भी पता नही , अपना भी नही .... थक चुके है पर , ढूंढ़ रहे है छाँव भरे मुंडेर ..... नही कोई आसरा , है हर तरफ कड़ी धूप , माँ के आँचल की छाँव , पिता के बाहों का सहारा , ओंझल हुआ सब महत्वकांक्षाओ के आकाश में !! नही-नही , अब कुछ भी तो नही ! मै भी नही , कुछ नही अब कोई नही ....! बस यूँ ही .... |
September 12, 2010 at 10:45 PM �
नैनोँ के तटबन्ध तोड़ने को आतुर ।
प्रशंसनीय ।
September 17, 2010 at 11:25 AM �
मन की डोर,
रिश्तों का गर्माहट और
सपनों की आहट को जोड़ती अच्छी प्रस्तुति.
September 20, 2010 at 4:44 PM �
mitu......papa shabd theek nahin hai yahaan....ise pita karke dekho....tumhen bhi acchha lagegaa ...sach....karke dekho...dekha acchha lagaa naa.....!!!!
July 24, 2011 at 11:18 AM �
Ati Sundar............
November 14, 2011 at 2:12 PM �
Poetry has been defined as a spontaneous overflow of one's emotions. How true that's after reading your beautiful creations! Please keep it up.
November 27, 2011 at 6:01 PM �
Meetu Ji U r contemplative person I like ur Poems .... JAGDEEP SINGH
December 15, 2011 at 11:26 PM �
बड़ा ही मार्मिक रचना...किरण जी...क्या कहूँ..
कैसी है यह अभिव्यक्ति,
कैसा है यह दर्द
दिल को पिघला गया,
आँखों को आँसुओं से भिगा गया
मन तो मन है ,मन का क्या ,
जीना तो पड़ता है हर हाल में
छूट जाते हैं बहुत सारे अपने ,
बढ़ जाते हैं हम अपनी राहों पर
भीगकर भी आँसुओं के गम में
कुछ पाने की रहती है ललक
उदासी और निराशा से
निकलना ही अच्छा है
पा लेतें हैं उस मंजिल को
प्रण अगर पक्का है ..:)