क्यों लिखती हूँ नहीं जानती, पर लिखती हूँ... क्योकि महसूस करना चाहती हूँ प्रेम-पीड़ा-परिचय-पहचान! तन्हाई में जब आत्म मंथन करती हूँ तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, अनुभव मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर कविता का रूप ले लेती है!!
---किरण श्रीवास्तव "मीतू" !!
अजीब सच है यह 'माँ' , की आपके पास न रहने पर , कुछ ज्यादा ही महसूस किया है आपको ! कबसे ज़ज्ब हूँ मै आपमें , पता ही न चला... बस एक ही पहेली है , क्या मेरे भाव पहुचते भी है आप तक ???
(आज बरबस ही माँ याद आ गई,ये पंक्तियाँ माँ को समर्पित!)
"वेदना की माटी से , पीड़ा के पानी से , संवेदनाओ की हवा से , आँसूवो के झरनों से ! कोमल मन को जब लगती है चोट , निकलता है कोई गीत , और बनती है कोई कविता !!"
तुतलाई जुबान से जब - तुने मुझे पापा कहा . एक क्षण को भूल गया था -मैं अपने आप को -तुझ से जुड़े अपनी जिम्मेदारियों के अहसास को .
फिर अमर बेल सी - जाने कैसे लिपटती चली गयी थी - मेरे अस्तित्व से - पर हर बार याद आ जाता था तुझसे जुड़ा- मेरा कर्तव्य बोध .
बहूत खुश नहीं था -जब तुने छू ली थी -आकाश की बुलंदियां को - लिख दिया था मेरा नाम -अपने नाम से पहले . पर मेरे कर्तव्य बोध ने -फिर से मुझे सावधान किया था .
और आज दुल्हन के रूप में - देख रहा हूँ सजे हुए -तुझे अपने से अलग -करने के मेरे सपने साकार हो गए हैं .
मेरे आँखों के समंदर अब - छलकने को हैं -पर जज्ब कर लेता हूँ पलकों के भीतर ही -ना जाने क्यों . लगता है ये घर की बहार -ना मालूम अब वापिस लौटेगी भी या नहीं .
अपने बगीचे की सबसे सुंदर जूही की कलम -लगा दी थी किसी और के उपवन में - खुशबुओं के विस्तार के लिए . ममता और प्यार के लिए . इस महा मत्स्य को अपने विस्तार के लिए- घर का फिश अक्वारियम अब - छोटा पड़ने लगा था .
अकेला रह गया हूँ -आज अपने ही घर में -अजनबी सा . सब कुछ है -सब लोग हैं , पर तेरे बिना -कुछ भी नहीं है .
चौंक जाता हूँ - तभी उस चिर परिचित आवाज़ से - मैं आ गयी हूँ पापा - नजरें भर आई हैं -पर नहीं अब ये सब नहीं . क्यों की मूलधन के साथ सूद भी लौट आया है आज- राजकुमारी के साथ -एक राजकुमार भी है. -(satish sharma)
तुतलाई जुबान से जब - तुने मुझे पापा कहा . एक क्षण को भूल गया था -मैं अपने आप को -तुझ से जुड़े अपनी जिम्मेदारियों के अहसास को .
फिर अमर बेल सी - जाने कैसे लिपटती चली गयी थी - मेरे अस्तित्व से - पर हर बार याद आ जाता था तुझसे जुड़ा- मेरा कर्तव्य बोध .
बहूत खुश नहीं था -जब तुने छू ली थी -आकाश की बुलंदियां को - लिख दिया था मेरा नाम -अपने नाम से पहले . पर मेरे कर्तव्य बोध ने -फिर से मुझे सावधान किया था .
और आज दुल्हन के रूप में - देख रहा हूँ सजे हुए -तुझे अपने से अलग -करने के मेरे सपने साकार हो गए हैं .
मेरे आँखों के समंदर अब - छलकने को हैं -पर जज्ब कर लेता हूँ पलकों के भीतर ही -ना जाने क्यों . लगता है ये घर की बहार -ना मालूम अब वापिस लौटेगी भी या नहीं .
अपने बगीचे की सबसे सुंदर जूही की कलम -लगा दी थी किसी और के उपवन में - खुशबुओं के विस्तार के लिए . ममता और प्यार के लिए . इस महा मत्स्य को अपने विस्तार के लिए- घर का फिश अक्वारियम अब - छोटा पड़ने लगा था .
अकेला रह गया हूँ -आज अपने ही घर में -अजनबी सा . सब कुछ है -सब लोग हैं , पर तेरे बिना -कुछ भी नहीं है .
चौंक जाता हूँ - तभी उस चिर परिचित आवाज़ से - मैं आ गयी हूँ पापा - नजरें भर आई हैं -पर नहीं अब ये सब नहीं . क्यों की मूलधन के साथ सूद भी लौट आया है आज- राजकुमारी के साथ -एक राजकुमार भी है. (satish sharma)
कुछ कर गुजरने की आग जीने नही देती,
कुछ न कर पाने का एहसास सोने नही देता!
यकीन की चिंगारी अश्क पीने नहीं देती,
अटल इरादा शिकस्त पे भी रोने नही देता !! ..... मीतू !!
क्यों लिखती हूँ नहीं जानती, पर लिखती हूँ... क्योकि महसूस करना चाहती हूँ प्रेम-पीड़ा-परिचय-पहचान! तन्हाई में जब आत्म मंथन करती हूँ तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, अनुभव मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर कविता का रूप ले लेती है!!
---किरण श्रीवास्तव "मीतू" !!
अपने दायरे !!
कुछ वीरानियो के सिलसिले आये इस कदर की जो मेरा अज़ीज़ था ..... आज वही मुझसे दूर है ..... तल्ख़ हुए रिश्तो में ओढ़ ली है अब मैंने तन्हाइयां !! ......... किरण "मीतू" !!
स्पंदन !!
निष्ठुर हूँ , निश्चल हूँ मैं पर मृत नही हूँ ... प्राण हैं मुझमे ... अभी उठना है दौड़ना हैं मुझे ... अपाहिज आत्मा के सहारे ... जीना है एक जीवन ... जिसमे मरण हैं एक बार ... सिर्फ एक बार !! ..... किरण " मीतू" !!
सतरंगी दुनिया !!
आस-पास , हास-परिहास , मैं रही फिर भी उदास ...आत्मा पर पड़ा उधार , उतारने का हुआ प्रयास ... खुश करने के और रहने के असफल रहे है सब प्रयास !! ..... किरण "मीतू" !!
उलझन !!
अकेले है इस जहां में , कहाँ जाए किधर जाए ! नही कोई जगह ऐसी की दिल के ज़ख्म भर जाए !! ... किरण "मीतू" !
तलाश स्वयं की !!
कुछ क्षण अंतर्मन में तूफ़ान उत्पन्न कर देते है और शब्दों में आकार पाने पर ही शांत होते है ! ..... मीतू !!
ज़ज़्बात दिल के !
मंजिल की तलाश में भागती इस महानगर के अनजानी राहो में मुझे मेरी कविता थाम लेती है , मुझे कुछ पल ठहर जी लेने का एहसास देती है ! मेरी कविता का जन्म ह्रदय की घनीभूत पीड़ा के क्षणों में ही होता है !! ..... किरण "मीतू" !!
मेरे एहसास !!
मेरे भीतर हो रहा है अंकुरण , उबल रहा है कुछ जो , निकल आना चाहता है बाहर , फोड़कर धरती का सीना , तैयार रहो तुम सब ..... मेरा विस्फोट कभी भी , तहस - नहस कर सकता है , तुम्हारे दमन के - नापाक इरादों को ---- किरण "मीतू" !!
आर्तनाद !
कभी-कभी जी करता है की भाग जाऊं मैं , इस खुबसूरत ,रंगीन , चंचल शहर से !! दो उदास आँखे .....निहारती रहती है बंद कमरे की उदास छत को ! . ..लेकिन भागुंगी भी कहाँ ? कौन है भला , जो इस सुन्दर सी पृथ्वी पर करता होगा मेरी प्रतीक्षा ? ..... किरण "मीतू" !!
मेरा बचपन - दुनिया परियो की !
प्रकृति की गोद में बिताये बचपन की मधुर स्मृतियाँ बार-बार मन को उसी ओर ले जाती है ! मानव जीवन में होने वाली हर बात मुझे प्रकृति से जुडी नज़र आती है तथा मैं मानव जीवन तथा प्रकृति में समीकरण बनाने का प्रयास करती हूँ !....किरण "मीतू
कविता-मेरी संवेदना !!
वेदना की माटी से , पीड़ा के पानी से , संवेदनाओ की हवा से , आँसूवो के झरनों से ! कोमल मन को जब लगती है चोट , निकलता है कोई गीत , और बनती है कोई कविता !! ..... मीतू !!
December 4, 2010 at 7:56 PM �
अति सुन्दर....माँ तो माँ ही होती है|
December 4, 2010 at 9:04 PM �
सुन्दर कविता.. मन को छू गई...
December 5, 2010 at 1:08 AM �
"क्या मेरे भाव पहुंचते भी हैं आप तक"
सुन्दर भावना! शुभकामनाएं
December 5, 2010 at 2:21 AM �
इस नए और सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
December 12, 2010 at 6:56 PM �
साक्षात् सच है "माँ" -
"वेदना की माटी से , पीड़ा के पानी से , संवेदनाओ की हवा से , आँसूवो के झरनों से ! कोमल मन को जब लगती है चोट , निकलता है कोई गीत , और बनती है कोई कविता !!"
शुभकामनाएं
December 13, 2010 at 11:31 AM �
Bahut Acchi shayri hai , ya yeh kaho ki pakiza shayri hai
kuch bhi kaho per maa ki ahmiyat ka aahsas karati yeh shayri hai
December 16, 2010 at 12:44 AM �
first time in ur blog..first of all congratulations for unique & versatile blog name. your welcome to my blog.
December 20, 2010 at 2:11 AM �
Kisi ne kaha ha ki hum ek shabd ha to maa ek puri bhasha ha.
December 29, 2010 at 9:42 PM �
ma bas ab main kya kahoon..... I have no word aboud 'maa'.
its about my feelings...
January 3, 2011 at 6:34 PM �
maa to maa hoti hai pahali guru jo bache ko naye sansar mai age badhne ke sabhi gun deti hai
January 17, 2011 at 1:22 AM �
Bahut Sundar Mujhe Shailaish lodha ki Kavita ki ek line yaad aa gayi Hum ek shabd han to maa puri bhasha ha
February 10, 2011 at 4:06 PM �
MUJHE YE MAA KI KIVITA BAHUT PYARI LAGI.
March 4, 2011 at 6:45 PM �
kya khub kahi hai apne dil ke tar tar ho gaye, similar to god Maa
March 8, 2011 at 11:00 AM �
तुतलाई जुबान से जब -
तुने मुझे पापा कहा .
एक क्षण को भूल गया था -मैं
अपने आप को -तुझ से जुड़े
अपनी जिम्मेदारियों
के अहसास को .
फिर अमर बेल सी - जाने
कैसे लिपटती चली गयी थी -
मेरे अस्तित्व से - पर हर
बार याद आ जाता था तुझसे जुड़ा-
मेरा कर्तव्य बोध .
बहूत खुश नहीं था -जब
तुने छू ली थी -आकाश की
बुलंदियां को - लिख दिया था
मेरा नाम -अपने नाम से पहले .
पर मेरे कर्तव्य बोध ने -फिर से
मुझे सावधान किया था .
और आज दुल्हन के रूप में -
देख रहा हूँ सजे हुए -तुझे
अपने से अलग -करने के
मेरे सपने साकार हो गए हैं .
मेरे आँखों के समंदर अब -
छलकने को हैं -पर जज्ब कर लेता हूँ
पलकों के भीतर ही -ना जाने क्यों .
लगता है ये घर की बहार -ना मालूम
अब वापिस लौटेगी भी या नहीं .
अपने बगीचे की सबसे सुंदर
जूही की कलम -लगा दी थी
किसी और के उपवन में -
खुशबुओं के विस्तार के लिए .
ममता और प्यार के लिए .
इस महा मत्स्य को अपने
विस्तार के लिए- घर का
फिश अक्वारियम अब -
छोटा पड़ने लगा था .
अकेला रह गया हूँ -आज
अपने ही घर में -अजनबी सा .
सब कुछ है -सब लोग हैं ,
पर तेरे बिना -कुछ भी नहीं है .
चौंक जाता हूँ - तभी उस
चिर परिचित आवाज़ से -
मैं आ गयी हूँ पापा - नजरें
भर आई हैं -पर नहीं अब ये सब नहीं .
क्यों की मूलधन के साथ सूद भी लौट आया है आज-
राजकुमारी के साथ -एक राजकुमार भी है.
-(satish sharma)
March 8, 2011 at 11:01 AM �
तुतलाई जुबान से जब -
तुने मुझे पापा कहा .
एक क्षण को भूल गया था -मैं
अपने आप को -तुझ से जुड़े
अपनी जिम्मेदारियों
के अहसास को .
फिर अमर बेल सी - जाने
कैसे लिपटती चली गयी थी -
मेरे अस्तित्व से - पर हर
बार याद आ जाता था तुझसे जुड़ा-
मेरा कर्तव्य बोध .
बहूत खुश नहीं था -जब
तुने छू ली थी -आकाश की
बुलंदियां को - लिख दिया था
मेरा नाम -अपने नाम से पहले .
पर मेरे कर्तव्य बोध ने -फिर से
मुझे सावधान किया था .
और आज दुल्हन के रूप में -
देख रहा हूँ सजे हुए -तुझे
अपने से अलग -करने के
मेरे सपने साकार हो गए हैं .
मेरे आँखों के समंदर अब -
छलकने को हैं -पर जज्ब कर लेता हूँ
पलकों के भीतर ही -ना जाने क्यों .
लगता है ये घर की बहार -ना मालूम
अब वापिस लौटेगी भी या नहीं .
अपने बगीचे की सबसे सुंदर
जूही की कलम -लगा दी थी
किसी और के उपवन में -
खुशबुओं के विस्तार के लिए .
ममता और प्यार के लिए .
इस महा मत्स्य को अपने
विस्तार के लिए- घर का
फिश अक्वारियम अब -
छोटा पड़ने लगा था .
अकेला रह गया हूँ -आज
अपने ही घर में -अजनबी सा .
सब कुछ है -सब लोग हैं ,
पर तेरे बिना -कुछ भी नहीं है .
चौंक जाता हूँ - तभी उस
चिर परिचित आवाज़ से -
मैं आ गयी हूँ पापा - नजरें
भर आई हैं -पर नहीं अब ये सब नहीं .
क्यों की मूलधन के साथ सूद भी लौट आया है आज-
राजकुमारी के साथ -एक राजकुमार भी है.
(satish sharma)