बरसो दुनिया की भीड़ में खोये रहने के बाद आज ये अनुभूतियाँ कैसी है ? क्यूँ भोर में भैरवी के साथ , दुपहरिया में दरबारी का आनंद लेते रात का मालकौस गुनगुनाते खो जाती हूँ ...... सोचने लगती हूँ अपने बारे में , हो जाती है फिर से जीने की लालसा ! क्या होने लगा है मुझे मेरे होने का एहसास ....?
फिर वही तलाश , आज फिर छू गई एक अनाम गंध , फिर लगा नही रितेगी इसकी ख़ुशबू , शायद बने कोई आशियाना .....
पर फिर हंस पड़ी दूनिया , बदल गया रुख हवाओं का तेज़ धूप ने रास्ता और लंबा कर दिया .....
और शुरू हो गई फिर वही तलाश !!!
_______मीतू किरण श्रीवास्तव Copyright ©, ३०-५-२०११ ---रात्री ११:११ |
July 30, 2011 at 2:46 PM �
मुझको मेरे होने का अहसास. बेहतरीन कविता. भाव निखर कर सामने आ गए.
August 4, 2011 at 8:14 AM �
बहुत सुन्दर प्रस्तुति , आभार
August 6, 2011 at 10:44 PM �
bas ek shabd....."vaah" mitu ji...
August 6, 2011 at 10:56 PM �
khud ke baare men aapke kahe gaye koteshan lajawaab hain....agar aap aisi hi ho....to vaakayi ye acchha hai......
August 8, 2011 at 1:28 AM �
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आदरणीया मीतू किरण श्रीवास्तव जी
सादर अभिवादन !
बहुत सुंदर लिखती हैं आप …
भोर में भैरवी के साथ ,
दुपहरिया में दरबारी का आनंद लेते
रात का मालकौस गुनगुनाते
खो जाती हूं ......
आहाऽऽह !
आपके भावों-शब्दों में आपका संगीत-ज्ञान भी मुखरित हुआ है …
काफी देर से आपके ब्लॉग पर हूं … कई रचनाएं पढ़ीं … आपकी लेखनी की प्रशंसा में पर्याप्त शब्द नहीं हैं मेरे पास … साधु !
समय निकाल कर मेरे यहाम भी पधारें … स्वागत है !
मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओ के साथ
-राजेन्द्र स्वर्णकार
August 8, 2011 at 6:59 PM �
waah man prasan ho gaya sundar kavita bhavon ko jis prakar aapne shadon main piroya hai wo jitna kahain kam hai..
September 28, 2011 at 10:10 AM �
बहुत बढिया कविता...
December 14, 2011 at 11:28 PM �
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना...किरण जी..अभिव्यक्तिपरक एवं अतिशय मर्मस्पशी कविता...मन में उठते द्वंद्व ,दिल को तड़पाता दर्द ,यादों के साये,वर्तमान का एहसास और भविष्य की चिंता ..इनसब अनुभूतियों की समष्टि है आपकी इस भावमयी शब्दों की अल्पना में.. निराशा के बीच आशा की मुस्कुराहटें और फिर अचानक टूटता विश्वास ,लेकिन अंततः आती हैं जीवनपथ पर बढ़ते कदमों की आवाजें...आशा निराशा के भंवर में डूबती उतराती जीवनपथ को उद्घाटित करती आपकी यह शब्द-सरिता आखिकार लक्ष्य की ओर बढ़ जाती है..
चल रहे थे जिस डगर पर
न जाने कैसे डगर बदला
बढ़ रहे थे किस दिशा में
रास्ते ने क्यों रुख है बदला
दो पल के हसीं सपनों में ही
हवाओं ने अपना रुख बदला
जिंदगी में होती है कभी ऐसी भी बात
लेकिन फिर भी चलते रहते हैं पतवार
चट्टानों की बाधाओं के बीच भी
रुकती नहीं सरिताओं के प्रवाह..
April 17, 2012 at 5:06 PM �
itani shuddh hindi,itna sundar rachna man prashann ho gaya