अकेलेपन की जंजीरों में जकड़ा , मेरा समूचा आस्तित्व ! छटपटाता , फडफडाता ... किसी से बंधकर मुक्त होने की आशा पर जीता , हर लम्हा , हर घडी इंतज़ार करता किसी का ! कोई जो समझे - दिल की धड़कन को , अश्रु के ताप को
कलेजे में रुकी सिसकियो की घुटन को ...
नजरो के सहमेपन को ,
आपस में लडती उंगलियों के द्वन्द को !
न हो जिसका अहम् चट्टान सा -
कि जिससे टकराकर
बिखर जाऊ मैं असंख्य बूंदों में !
वरन जो हो एक समंदर -सा ,
अंगीकार कर ले
अपने अस्तित्व में
मुझ अकेली बहती नीरव नदी को ...
और कर दे मुझे सदा के लिए बंधन मुक्त !|!|!|!|
__ किरण .....Copyright © २०नोव२०१२ .. ८:४० pm
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November 21, 2012 at 11:42 AM �
अपने वजूद को तलाशत सुंदर रचना
November 21, 2012 at 7:53 PM �
अंतर की गूढ़ संवेदनाएं, सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है ..