मैंने औरत को पिटते देखा है ,
और बादलो को भी घिरते देखा है ,
लेकिन आकाश में नही, उस औरत की आँखों में !


मैंने पानी फिरते देखा है, उसके सपनो में !
जब वे चूर-चूर होकर कसकते है उसकी आँखों से ,
तब उसका जिस्म ही नही टूटता ,
टूटता है उसका विश्वास भी रिश्तो से !
टूटता है उसका आत्मबल भी,उसके ही अपनों से !


मैंने हारते देखा है, मनोबल को शारीरिक बल से !
जब औरत पिटती है,अपने पति के हाथों से !
मैंने उन्ही हाथो से ,
उस औरत को असुरक्षित देखा है ,
जिनका दावा है उसके संरक्षकत्व का !


और चुपके से दुआ मांगते भी देखा है ,
उसी औरत को- उसके लिए ,
जिससे - बाराहा पिटती है वह,
सुबह शाम और रातो को ....!!


(यह कविता आँखों-देखी पर आधारित है !
कालोनी में अक्सर देखती थी ...
एक दिन पूछा भी उनसे - "भाभी, क्यूँ सहती हो" ?
लेकिन उनके जवाब में फिर भी पति के प्रति आदर और सम्मान ही पाया....


पत्नी अध्यापिका और पति इंजिनियर-और उनके घर में यह हाल !
...क्या यही है स्थिति हमारी ?)

.

7 Responses to "मैंने देखा है !"

  1. smit mishra Says:

    haan..maine bhi dekha hai ...

  2. Chote Ustad Says:

    Per mujhe to kuch dikhai nahi diya bhai

  3. smit mishra Says:

    sach kahti ho meetu , duniya chahe kitni bhi unnati ka dhindhora peet le ham striyo ki dasha vahi ki vhi hai ...

  4. NISHEETH KAVI Says:

    नारी तुम सावित्री हो,
    हाँ तुम अब भी सावित्री हो,
    किन्तु पुरुष
    तुम्हारी हत्या-उत्पीडन
    क्यों कर लेता स्वीकार.
    शायद
    सत्यवान
    भूल गया तुम्हारा उपकार
    -निशीथ

  5. gyanendra kumar Says:

    मैंने औरत को पिटते देखा है ,
    और बादलो को भी घिरते देखा है ,
    लेकिन आकाश में नही, उस औरत की आँखों में


    isse achchi line ho nahi sakti.....

    seedhe dil mein utar gayeeen....

  6. panditji Says:

    ममता का महकता हुआ गुलज़ार है औरत बदले पे उतर आये तो तलवार है औरत
    मैथिलीशरण गुप्त
    यह भारतीय स्त्री के त्याग और सेवा की पराकाष्ठा है पति ही परमेश्वर है चाहे वह कैसा भी हो .
    श्री राम चरित मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं कि
    करेहु सदा संकर पद पूजा ! नारि धरम पति देव न दूजा !!

  7. vineet setia Says:

    this is one sided view.aapne sirf pit te dekha hai maine striyo ko na jane kya kya karte dekha hai

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  • संवेदना

    क्यों लिखती हूँ नहीं जानती, पर लिखती हूँ... क्योकि महसूस करना चाहती हूँ प्रेम-पीड़ा-परिचय-पहचान! तन्हाई में जब आत्म मंथन करती हूँ तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, अनुभव मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर कविता का रूप ले लेती है!! ---किरण श्रीवास्तव "मीतू" !!

    अपने दायरे !!

    अपने दायरे !!
    कुछ वीरानियो के सिलसिले आये इस कदर की जो मेरा अज़ीज़ था ..... आज वही मुझसे दूर है ..... तल्ख़ हुए रिश्तो में ओढ़ ली है अब मैंने तन्हाइयां !! ......... किरण "मीतू" !!

    स्पंदन !!

    स्पंदन !!
    निष्ठुर हूँ , निश्चल हूँ मैं पर मृत नही हूँ ... प्राण हैं मुझमे ... अभी उठना है दौड़ना हैं मुझे ... अपाहिज आत्मा के सहारे ... जीना है एक जीवन ... जिसमे मरण हैं एक बार ... सिर्फ एक बार !! ..... किरण " मीतू" !!

    सतरंगी दुनिया !!

    सतरंगी दुनिया !!
    आस-पास , हास-परिहास , मैं रही फिर भी उदास ...आत्मा पर पड़ा उधार , उतारने का हुआ प्रयास ... खुश करने के और रहने के असफल रहे है सब प्रयास !! ..... किरण "मीतू" !!

    उलझन !!

    उलझन !!
    अकेले है इस जहां में , कहाँ जाए किधर जाए ! नही कोई जगह ऐसी की दिल के ज़ख्म भर जाए !! ... किरण "मीतू" !

    तलाश स्वयं की !!

    तलाश स्वयं की !!
    कुछ क्षण अंतर्मन में तूफ़ान उत्पन्न कर देते है और शब्दों में आकार पाने पर ही शांत होते है ! ..... मीतू !!

    ज़ज़्बात दिल के !

    ज़ज़्बात दिल के !
    मंजिल की तलाश में भागती इस महानगर के अनजानी राहो में मुझे मेरी कविता थाम लेती है , मुझे कुछ पल ठहर जी लेने का एहसास देती है ! मेरी कविता का जन्म ह्रदय की घनीभूत पीड़ा के क्षणों में ही होता है !! ..... किरण "मीतू" !!

    मेरे एहसास !!

    मेरे एहसास !!
    मेरे भीतर हो रहा है अंकुरण , उबल रहा है कुछ जो , निकल आना चाहता है बाहर , फोड़कर धरती का सीना , तैयार रहो तुम सब ..... मेरा विस्फोट कभी भी , तहस - नहस कर सकता है , तुम्हारे दमन के - नापाक इरादों को ---- किरण "मीतू" !!

    आर्तनाद !

    आर्तनाद !
    कभी-कभी जी करता है की भाग जाऊं मैं , इस खुबसूरत ,रंगीन , चंचल शहर से !! दो उदास आँखे .....निहारती रहती है बंद कमरे की उदास छत को ! . ..लेकिन भागुंगी भी कहाँ ? कौन है भला , जो इस सुन्दर सी पृथ्वी पर करता होगा मेरी प्रतीक्षा ? ..... किरण "मीतू" !!

    मेरा बचपन - दुनिया परियो की !

    मेरा बचपन - दुनिया परियो की !
    प्रकृति की गोद में बिताये बचपन की मधुर स्मृतियाँ बार-बार मन को उसी ओर ले जाती है ! मानव जीवन में होने वाली हर बात मुझे प्रकृति से जुडी नज़र आती है तथा मैं मानव जीवन तथा प्रकृति में समीकरण बनाने का प्रयास करती हूँ !....किरण "मीतू

    कविता-मेरी संवेदना !!

    कविता-मेरी संवेदना !!
    वेदना की माटी से , पीड़ा के पानी से , संवेदनाओ की हवा से , आँसूवो के झरनों से ! कोमल मन को जब लगती है चोट , निकलता है कोई गीत , और बनती है कोई कविता !! ..... मीतू !!
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