क्यों लिखती हूँ नहीं जानती, पर लिखती हूँ... क्योकि महसूस करना चाहती हूँ प्रेम-पीड़ा-परिचय-पहचान! तन्हाई में जब आत्म मंथन करती हूँ तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, अनुभव मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर कविता का रूप ले लेती है!!
---किरण श्रीवास्तव "मीतू" !!
वाह...किरण जी...बड़ा ही गहरा व्यंग्य है...क्या कहूँ ,यह तो पुरुष प्रधान समाज हमेशा ही रहा है...स्त्रियों को नाम मात्र के दिखावे का अधिकार रहा है..धर्म ग्रंथों,विधि ग्रंथों में स्त्रियों को देवी की संज्ञा भले दे दी गयी हो,लेकिन वास्तविकता तो यही रही है कि कभी सीता की तरह उन्हें अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है और कभी द्रौपदी की तरह उनका चीर हरण हुआ है.ये संयोग है या फिर हमारी परंपरा का दुहरा चरित्र कि सीता हो या फिर द्रौपदी सबको पुरुष चुनने का अधिकार तो दिया गया लेकिन चयन की प्रकिया पूरी होते ही सारे अधिकार छीन के पुरुषों को दे दिये गए. ये शायद उस देश काल की मजबूरी रही हो या फिर पुरुषवादी मानसिकता का आघात कि आजाद स्त्री पुरुष की छाया बन जाती है. ये स्पष्ट है कि भारतीय परंपरा मे स्त्री भी कुछ है लेकिन वो पुरुष के बराबर नहीं है और यही परंपरा आजभी बखूबी चली आ रही है. हम घरों में देवियों की पूजा करते हैं, लेकिन उसे बराबरी का दर्जा नहीं देते. ये यही दुहरा चरित्र है कि बच्ची के पैदा होते ही स्त्री को अपशकुनी करार दिया जाता है और स्त्री विवश हो कह उठती है अगले जन्म हमें बिटिया न कीजो. धर्म का अतीत तो हम बदल नहीं सकते और न ही उसकी मान्य़ताओं और प्रतीकों को लेकिन सदियों से दबाई गई स्त्री को बराबरी का दर्जा देकर हम पुरुष अपने किये पापों का कुछ तो प्रायश्चित कर सकते हैं .राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित यशोधरा की यह पंक्तियां आज भी फिट बैठती हैं... अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी। आचल में है दूध और अआंखों में पानी ॥
कुछ कर गुजरने की आग जीने नही देती,
कुछ न कर पाने का एहसास सोने नही देता!
यकीन की चिंगारी अश्क पीने नहीं देती,
अटल इरादा शिकस्त पे भी रोने नही देता !! ..... मीतू !!
क्यों लिखती हूँ नहीं जानती, पर लिखती हूँ... क्योकि महसूस करना चाहती हूँ प्रेम-पीड़ा-परिचय-पहचान! तन्हाई में जब आत्म मंथन करती हूँ तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, अनुभव मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर कविता का रूप ले लेती है!!
---किरण श्रीवास्तव "मीतू" !!
अपने दायरे !!
कुछ वीरानियो के सिलसिले आये इस कदर की जो मेरा अज़ीज़ था ..... आज वही मुझसे दूर है ..... तल्ख़ हुए रिश्तो में ओढ़ ली है अब मैंने तन्हाइयां !! ......... किरण "मीतू" !!
स्पंदन !!
निष्ठुर हूँ , निश्चल हूँ मैं पर मृत नही हूँ ... प्राण हैं मुझमे ... अभी उठना है दौड़ना हैं मुझे ... अपाहिज आत्मा के सहारे ... जीना है एक जीवन ... जिसमे मरण हैं एक बार ... सिर्फ एक बार !! ..... किरण " मीतू" !!
सतरंगी दुनिया !!
आस-पास , हास-परिहास , मैं रही फिर भी उदास ...आत्मा पर पड़ा उधार , उतारने का हुआ प्रयास ... खुश करने के और रहने के असफल रहे है सब प्रयास !! ..... किरण "मीतू" !!
उलझन !!
अकेले है इस जहां में , कहाँ जाए किधर जाए ! नही कोई जगह ऐसी की दिल के ज़ख्म भर जाए !! ... किरण "मीतू" !
तलाश स्वयं की !!
कुछ क्षण अंतर्मन में तूफ़ान उत्पन्न कर देते है और शब्दों में आकार पाने पर ही शांत होते है ! ..... मीतू !!
ज़ज़्बात दिल के !
मंजिल की तलाश में भागती इस महानगर के अनजानी राहो में मुझे मेरी कविता थाम लेती है , मुझे कुछ पल ठहर जी लेने का एहसास देती है ! मेरी कविता का जन्म ह्रदय की घनीभूत पीड़ा के क्षणों में ही होता है !! ..... किरण "मीतू" !!
मेरे एहसास !!
मेरे भीतर हो रहा है अंकुरण , उबल रहा है कुछ जो , निकल आना चाहता है बाहर , फोड़कर धरती का सीना , तैयार रहो तुम सब ..... मेरा विस्फोट कभी भी , तहस - नहस कर सकता है , तुम्हारे दमन के - नापाक इरादों को ---- किरण "मीतू" !!
आर्तनाद !
कभी-कभी जी करता है की भाग जाऊं मैं , इस खुबसूरत ,रंगीन , चंचल शहर से !! दो उदास आँखे .....निहारती रहती है बंद कमरे की उदास छत को ! . ..लेकिन भागुंगी भी कहाँ ? कौन है भला , जो इस सुन्दर सी पृथ्वी पर करता होगा मेरी प्रतीक्षा ? ..... किरण "मीतू" !!
मेरा बचपन - दुनिया परियो की !
प्रकृति की गोद में बिताये बचपन की मधुर स्मृतियाँ बार-बार मन को उसी ओर ले जाती है ! मानव जीवन में होने वाली हर बात मुझे प्रकृति से जुडी नज़र आती है तथा मैं मानव जीवन तथा प्रकृति में समीकरण बनाने का प्रयास करती हूँ !....किरण "मीतू
कविता-मेरी संवेदना !!
वेदना की माटी से , पीड़ा के पानी से , संवेदनाओ की हवा से , आँसूवो के झरनों से ! कोमल मन को जब लगती है चोट , निकलता है कोई गीत , और बनती है कोई कविता !! ..... मीतू !!
March 3, 2012 at 9:25 PM �
इस कलयुग में भी आज सीता को तो जीते जी अग्नि में जलाया ही जाता है !
रोज होते हैं यहाँ अबलाओं के चीर हरण कुछ दिन के उजाले और रात के अँधेरे में !
March 4, 2012 at 12:04 AM �
वाह...किरण जी...बड़ा ही गहरा व्यंग्य है...क्या कहूँ ,यह तो पुरुष प्रधान समाज हमेशा ही रहा है...स्त्रियों को नाम मात्र के दिखावे का अधिकार रहा है..धर्म ग्रंथों,विधि ग्रंथों में स्त्रियों को देवी की संज्ञा भले दे दी गयी हो,लेकिन वास्तविकता तो यही रही है कि कभी सीता की तरह उन्हें अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है और कभी द्रौपदी की तरह उनका चीर हरण हुआ है.ये संयोग है या फिर हमारी परंपरा का दुहरा चरित्र कि सीता हो या फिर द्रौपदी सबको पुरुष चुनने का अधिकार तो दिया गया लेकिन चयन की प्रकिया पूरी होते ही सारे अधिकार छीन के पुरुषों को दे दिये गए. ये शायद उस देश काल की मजबूरी रही हो या फिर पुरुषवादी मानसिकता का आघात कि आजाद स्त्री पुरुष की छाया बन जाती है. ये स्पष्ट है कि भारतीय परंपरा मे स्त्री भी कुछ है लेकिन वो पुरुष के बराबर नहीं है और यही परंपरा आजभी बखूबी चली आ रही है. हम घरों में देवियों की पूजा करते हैं, लेकिन उसे बराबरी का दर्जा नहीं देते. ये यही दुहरा चरित्र है कि बच्ची के पैदा होते ही स्त्री को अपशकुनी करार दिया जाता है और स्त्री विवश हो कह उठती है अगले जन्म हमें बिटिया न कीजो. धर्म का अतीत तो हम बदल नहीं सकते और न ही उसकी मान्य़ताओं और प्रतीकों को लेकिन सदियों से दबाई गई स्त्री को बराबरी का दर्जा देकर हम पुरुष अपने किये पापों का कुछ तो प्रायश्चित कर सकते हैं .राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित यशोधरा की यह पंक्तियां आज भी फिट बैठती हैं...
अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी।
आचल में है दूध और अआंखों में पानी ॥
March 4, 2012 at 1:47 PM �
ye dharti ab narkme tabdil ho chuka hai.......bas ant ka intzar hai...