एक दिन हंस क्रुद्ध होकर कौवे से बोला ,
घायल प्राणी को सताना है भयंकर पाप ,
कौवा कसाई बनकर तन गया ,
बोला- मांस खाना है हमारा काम -
चाहे जीव जिंदा हो या मुर्दा !!
इतने में बहुत से कौवे इन्सान बन चिल्लाने लगे,
हंस अकेला पड़ा, भाग कर जान बचाई,
नीर छीर विवेक को भूल गया हंस ,
खतरनाक सच्चाई है - जंगल का कानून ,
हत्यारों के देश में हंस नहीं जी सकता है ,
कैसे बदले वो कानून जो बाधक हो उत्थान में ,
 कर रहा है वो संघर्ष यही सच्चाई है ,
हंस और कौवे की यही लड़ाई है.......!!

 

1 Response to "हंस का गुस्सा"

  1. rahul Says:

    मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

    मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ है हयात
    तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
    तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
    तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
    तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
    यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
    और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
    राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

    मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

    अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तलिस्म
    रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाये हुये
    जा-ब-जा बिकते हुये कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
    ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाये हुये
    जिस्म निकले हुये अमराज़ के तन्नूरों से
    पीप बहती हुई गलते हुये नासूरों से
    लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
    अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे
    और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
    राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

    मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

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  • संवेदना

    क्यों लिखती हूँ नहीं जानती, पर लिखती हूँ... क्योकि महसूस करना चाहती हूँ प्रेम-पीड़ा-परिचय-पहचान! तन्हाई में जब आत्म मंथन करती हूँ तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, अनुभव मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर कविता का रूप ले लेती है!! ---किरण श्रीवास्तव "मीतू" !!

    अपने दायरे !!

    अपने दायरे !!
    कुछ वीरानियो के सिलसिले आये इस कदर की जो मेरा अज़ीज़ था ..... आज वही मुझसे दूर है ..... तल्ख़ हुए रिश्तो में ओढ़ ली है अब मैंने तन्हाइयां !! ......... किरण "मीतू" !!

    स्पंदन !!

    स्पंदन !!
    निष्ठुर हूँ , निश्चल हूँ मैं पर मृत नही हूँ ... प्राण हैं मुझमे ... अभी उठना है दौड़ना हैं मुझे ... अपाहिज आत्मा के सहारे ... जीना है एक जीवन ... जिसमे मरण हैं एक बार ... सिर्फ एक बार !! ..... किरण " मीतू" !!

    सतरंगी दुनिया !!

    सतरंगी दुनिया !!
    आस-पास , हास-परिहास , मैं रही फिर भी उदास ...आत्मा पर पड़ा उधार , उतारने का हुआ प्रयास ... खुश करने के और रहने के असफल रहे है सब प्रयास !! ..... किरण "मीतू" !!

    उलझन !!

    उलझन !!
    अकेले है इस जहां में , कहाँ जाए किधर जाए ! नही कोई जगह ऐसी की दिल के ज़ख्म भर जाए !! ... किरण "मीतू" !

    तलाश स्वयं की !!

    तलाश स्वयं की !!
    कुछ क्षण अंतर्मन में तूफ़ान उत्पन्न कर देते है और शब्दों में आकार पाने पर ही शांत होते है ! ..... मीतू !!

    ज़ज़्बात दिल के !

    ज़ज़्बात दिल के !
    मंजिल की तलाश में भागती इस महानगर के अनजानी राहो में मुझे मेरी कविता थाम लेती है , मुझे कुछ पल ठहर जी लेने का एहसास देती है ! मेरी कविता का जन्म ह्रदय की घनीभूत पीड़ा के क्षणों में ही होता है !! ..... किरण "मीतू" !!

    मेरे एहसास !!

    मेरे एहसास !!
    मेरे भीतर हो रहा है अंकुरण , उबल रहा है कुछ जो , निकल आना चाहता है बाहर , फोड़कर धरती का सीना , तैयार रहो तुम सब ..... मेरा विस्फोट कभी भी , तहस - नहस कर सकता है , तुम्हारे दमन के - नापाक इरादों को ---- किरण "मीतू" !!

    आर्तनाद !

    आर्तनाद !
    कभी-कभी जी करता है की भाग जाऊं मैं , इस खुबसूरत ,रंगीन , चंचल शहर से !! दो उदास आँखे .....निहारती रहती है बंद कमरे की उदास छत को ! . ..लेकिन भागुंगी भी कहाँ ? कौन है भला , जो इस सुन्दर सी पृथ्वी पर करता होगा मेरी प्रतीक्षा ? ..... किरण "मीतू" !!

    मेरा बचपन - दुनिया परियो की !

    मेरा बचपन - दुनिया परियो की !
    प्रकृति की गोद में बिताये बचपन की मधुर स्मृतियाँ बार-बार मन को उसी ओर ले जाती है ! मानव जीवन में होने वाली हर बात मुझे प्रकृति से जुडी नज़र आती है तथा मैं मानव जीवन तथा प्रकृति में समीकरण बनाने का प्रयास करती हूँ !....किरण "मीतू

    कविता-मेरी संवेदना !!

    कविता-मेरी संवेदना !!
    वेदना की माटी से , पीड़ा के पानी से , संवेदनाओ की हवा से , आँसूवो के झरनों से ! कोमल मन को जब लगती है चोट , निकलता है कोई गीत , और बनती है कोई कविता !! ..... मीतू !!
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